Lekhika Ranchi

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वरदान--मुंशी प्रेमचंद


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यह कहकर वह गर्व से मस्तक उठाये बाहर निकला। लेकिन निसियास भी उसके पीछे चला। द्वार पर आतओते उसे पा लिया और तब अपना हाथ उसके कन्धे पर रखकर उसके कान में बोला-'देखो वीनस को क्रुद्ध मत करना। उसका परत्याघात अत्यन्त भीषण होता है।'
किन्तु पापनाशी ने इस चेतावनी को तुच्छ समझा, सिर फेरकर भी न देखा। वह निसियास को पतित समझता था, लेकिन जिस बात से उसे जलन होती थी वह यह थी कि मेरा पुराना मित्र थायस का परेममात्र रह चुका है। उसे ऐसा अनुभव होता था कि इससे घोर अपराध हो ही नहीं सकता। अब से वह निसियास को संसार का सबसे अधम, सबसे घृणित पराणी समझने लगा। उसने भरष्टाचार से सदैव नफरत की थी, लेकिन आज के पहले यह पाप उसे इतना नारकीय कभी न परतीत हुआ था। उसकी समझ में परभु मसीह के क्रोध और स्वर्ग दूतों के तिरस्कार का इससे निन्द्य और कोई विषय ही न था।
उसके मन में थायस को इन विलासियों से बचाने के लिए और भी तीवर आकांक्षा जागृत हुई। अब बिना एक क्षण विलम्ब किये मुझे थामस से भेंट करनी चाहिए। लेकिन अभी मध्याह्न काल था और जब तक दोपहर की गरमी शान्त न हो जाए, थायस के घर जाना उचित न था। पापनाशी शहर की सड़कों पर घूमता रहा। आज उसने कुछ भोजन न किया था जिसमें उस पर ईश्वर की दया दृष्टि रहे। कभी वह दीनता से आंखें जमीन की ओर झुका लेता था, और कभी अनुरक्त होकर आकाश की ओर ताकने लगता था। कुछ देर इधरउधर निष्परयोजन घूमने के बाद वह बन्दरगाह पर जा पहुंचा। सामने विस्तृत बन्दरगाह था, जिसमें असंख्य जलयान और नौकाएं लंगर डाले पड़ी हुई थीं, और उनके आगे नीला समुद्र, श्वेत चादर ओ़े हंस रहा था। एक नौका ने, जिसकी पतवार पर एक अप्सरा का चित्र बना हुआ था अभी लंगर खोला था। डांडें पानी में चलने लगे, मांझियों ने गाना आरम्भ किया और देखतेदेखते वह श्वेतवस्त्रधारिणी जलकन्या योगी की दृष्टि में केवल एक स्वप्नचित्र की भांति रह गयी। बन्दरगाह से निकलकर, वह अपने पीछे जगमगाता हुआ जलमार्ग छोड़ती खुले समुद्र में पहुंच गयी।
पापनाशी ने सोचा-मैं भी किसी समय संसारसागर पर गाते हुए यात्रा करने को उत्सुक था लेकिन मुझे शीघर ही अपनी भूल मालूम हो गयी। मुझ पर अप्सरा का जादू न चला।
इन्हीं विचारों में मग्न वह रस्सियों की गेंडुली पर बैठ गया। निद्रा से उसकी आंखें बन्द हो गयीं। नींद में उसे एक स्वप्न दिखाई दिया। उसे मालूम हुआ कि कहीं से तुरहियों की आवाज कान में आ रही है, आकाश रक्तवर्ण हो गया है। उसे ज्ञात हुआ कि धमार्धर्म के विचार का दिन आ पहुंचा। वह बड़ी तन्मयता से ईशवन्दना करने लगा। इसी बीच में उसने एक अत्यन्त भयंकर जंतु को अपनी ओर आते देखा, जिसके माथे पर परकाश का एक सलीव लगा हुआ था। पापनाशी ने उसे पहचान लिया-सिलसिली की पिशाचमूर्ति थी। उस जन्तु ने उसे दांतों के नीचे दबा लिया और उसे लेकर चला, जैसे बिल्ली अपने बच्चे को लेकर चलती है। इस भांति वह जन्तु पापनाशी को कितने ही द्वीपों से होता, नदियों को पार करता, पहाड़ों को फांदता अन्त में एक निर्जन स्थान में पहुंचा, जहां दहकते हुए पहाड़ और झुलसते राख के ढेरों के सिवाय और कुछ नजर न आता था। भूमि कितने ही स्थलों पर फट गयी थी और उसमें से आग की लपट निकल रही थी। जन्तु ने पापनाशी को धीरे से उतार दिया और कहा-'देखो !'

पापनाशी ने एक खोह के किनारे झुककर नीचे देखा। एक आग की नदी पृथ्वी के अन्तस्थल में दो कालेकाले पर्वतों के बीच से बह रही थी। वहां धुंधले परकाश में नरक के दूत पापात्माओं को कष्ट दे रहे थे। इन आत्माओं पर उनके मृत शरीर का हलका आवरण था, यहां तक कि वह कुछ वस्त्र भी पहने हुए थी। ऐसे दारुण कष्टों में भी यह आत्माएं बहुत दुःखी न जान पड़ती थीं। उनमें से एक जो लम्बी, गौरवर्ण, आंखें बन्द किये हुए थी, हाथ में एक तलवार लिये जा रही थी। उसके मधुर स्वरों से समस्त मरुभूमि गूंज रही थी। वह देवताओं और शूरवीरों की विरुदावली गा रही थी। छोटेछोटे हरे रंग के दैत्य उनके होंठ और कंठ को लाल लोहे की सलाखों से छेद रहे थे। यह अमर कवि होमर की परतिच्छाया थी। वह इतना कष्ट झेलकर भी गाने से बाज न आती थी। उसके समीप ही अनकगोरस, जिसके सिर के बाल गिर गये थे, धूल में परकाल से शक्लें बना रहा था। एक दैत्य उसके कानों में खौलता हुआ तेल डाल रहा था; पर उसकी एकागरता को भंग न कर सकता था। इसके अतिरिक्त पापनाशी को और कितनी ही आत्माएं दिखाई दीं जो जलती हुई नदी के किनारे बैठी हुई उसी भांति पठनपाठन, वादपरतिवाद, उपासनाध्यान में मग्न थीं जैसे यूनान के गुरुकुलों में गुरुशिष्य किसी वृक्ष की छाया में बैठकर किया करते थे, वृद्ध टिमाक्लीज ही सबसे अलग था और भरान्तिवादियों की भांति सिर हिला रहा था। एक दैत्य उसकी आंखों के सामने एक मशाल हिला रहा था, किन्तु टिमाक्लीज आंखें ही न खोलता था।

इस दृश्य से चकित होकर पापनाशी ने उस भयंकर जन्तु की ओर देखा जो उसे यहां लाया था। कदाचित उससे पूछना चाहता था कि यह क्या रहस्य है ? पर वह जन्तु अदृश्य हो गया था और उसकी जगह एक स्त्री मुंह पर नकाब डाले खड़ी थी। वह बोली-'योगी, खूब आंखें खोलकर देख ! इन भरष्ट आत्माओं का दुरागरह इतना जटिल है कि नरक में भी उनकी भरान्ति शान्त नहीं हुई। यहां भी वह उसी माया के खिलौने बने हुए हैं। मृत्यु ने उनके भरमजाल को नहीं तोड़ा क्योंकि परत्यक्ष ही, केवल मर जाने से ही ईश्वर के दर्शन नहीं होते। जो लोग जीवनभर अज्ञानान्धकार में पड़े हुए थे, वह मरने पर भी मूर्ख ही बने रहेंगे। यह दैत्यगण ईश्वरीय न्याय के यंत्र ही तो हैं। यही कारण है कि आत्माएं उन्हें न देखती हैं न उनस भयभीत होती हैं। वह सत्य के ज्ञान से शून्य थे, अतएव उन्हें अपने अकर्मों का भी ज्ञान न था। उन्होंने जो कुछ किया अज्ञान की अवस्था में किया। उन पर वह दोषारोपण नहीं कर सकता फिर वह उन्हें दण्ड भोगने पर कैसे मजबूर कर सकता है ?'
पापनाशी ने उत्तेजित होकर कहा-'ईश्वर सर्वशक्तिमान है, वह सब कुछ कर सकता है।
नकाबपोश स्त्री ने उत्तर दिया-'नहीं, वह असत्य को सत्य नहीं कर सकता। उसको दंड भोग के योग्य बनाने के लिए पहले उनको अज्ञान से मुक्त करना होगा, और जब वह अज्ञान से मुक्त हो जाएंगे तो वह धमार्त्माओं की श्रेणी में आ जाएंगे !'
पापनाशी उद्विग्न और ममार्हत होकर फिर खोह के किनारों पर झुका। उसने निसियास की छाया को एक पुष्पमाला सिर पर डाले, और एक झुलसे हुए मेंहदी के वृक्ष के नीचे बैठे देखा। उसकी बगल में एक अति रूपवती वेश्या बैठी हुई थी और ऐसा विदित होता था कि वह परेम की व्याख्या कर रहे हैं। वेश्या की मुखश्री मनोहर और अपिरतम थी। उन पर जो अग्नि की वर्षा हो रही थी वह ओस की बूंदों के समान सुखद और शीतल थी, और वह झुलसती हुई भूमि उनके पैरों से कोमल तृण के समान दब जाती थी। यह देखकर पापनाशी की क्रोधाग्नि जोर से भड़क उठी। उसने चिल्लाकर कहा-ईश्वर, इस दुराचारी पर वजरघात कर ! यह निसियास है। उसे ऐसा कुचल कि वह रोये, कराहे और क्रोध से दांत पीसे। उसने थायस को भरष्ट किया है।
सहसा पापनाशी की आंखें खुल गईं। वह एक बलिष्ठ मांझी की गोद में था। मांझी बोला-'बस मित्र, शान्त हो जाओ। जल देवता साक्षी है कि तुम नींद में बुरी तरह चौंक पड़ते हो। अगर मैंने तुम्हें सम्हाल न लिया होता तो तुम अब तक पानी में डुबकियां खाते होते। आज मैंने तुम्हारी जान बचाई।'
पापनाशी बोला-'ईश्वर की दया है।'
वह तुरन्त उठ खड़ा हुआ और इस स्वप्न पर विचार करता हुआ आगे ब़ा। अवश्य ही यह दुस्वप्न है। नरक को मिथ्या समझना ईश्वरीय न्याय का अपमान करना है। इस स्वप्न को परेषक कोई पिशाच है।

ईसाई तपस्वियों के मन में नित्य यह शंका उठती रहती कि इस स्वप्न का हेतु ईश्वर है या पिशाच। पिशाचादि उन्हें नित्य घेरे रहते थे। मनुष्यों से जो मुंह मोड़ता है, उसका गला पिशाचों से नहीं छूट सकता। मरुभूमि पिशाचों का क्रीड़ाक्षेत्र है। वहां नित्य उनका शोर सुनाई देता है। तपस्वियों को परायः अनुभव से, स्वप्न की व्यवस्था से ज्ञान हो जाता है कि यह मर्द ईश्वरीय परेरणा है या पिशाचिक परलोभन। पर कभीकभी बहुत यत्न करने पर भी उन्हें भरम हो जाता था। तपस्वियों और पिशाचों में निरन्तर और महाघोर संगराम होता रहता था। पिशाचों को सदैव यह धुन रहती थी कि योगियों को किसी तरह धोखे में डालें और उनसे अपनी आज्ञा मनवा लें। सन्त जॉन एक परसिद्ध पुरुष थे। पिशाचों के राजा ने साठ वर्ष तक लगातार उन्हें धोखा देने की चेष्टा की, पर सन्त जॉन उसकी चालों को ताड़ लिया करते थे। एक दिन पिशाचराजा ने एक वैरागी का रूप धारण किया और जॉन की कुटी में आकर बोला-'जॉन, कल शाम तक तुम्हें अनशन (वरत) रखना होगा।' जॉन ने समझा, वह ईश्वर का दूत है और दो दिन तक निर्जल रहा। पिशाच ने उन पर केवल यही एक विजय पराप्त की, यद्यपि इससे पिशाचराज का कोई कुत्सित उद्देश्य न पूरा हुआ, पर सन्त जॉन को अपनी पराजय का बहुत शोक हुआ। किन्तु पापनाशी ने जो स्वप्न देखा था उसका विषय ही कहे देता था कि इसका कर्ता पिशाच है।

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